दानवीर कर्ण की कहानी
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें हर जरूरतमंद के प्रति दया और उदारता का भाव रखना चाहिए।
Story
कर्ण कुन्ती और सूर्यदेव के पहले पुत्र थे। वह पांडवों के बड़े भाई थे परंतु कर्ण और पांडवों को इसका पता नहीं था।कर्ण को अधिरथ नामक रथ बनाने वाले और उनकी पत्नी राधा ने पाल-पोसकर बड़ा किया, इसलिए कर्ण को राधेय भी कहा जाता है। कर्ण एक महान धनुर्धर थे। जन्म से ही उनके पास दिव्य कवच और कुंडल थे, जो उन्हें युद्ध भूमि पर लगभग अजेय बना देते थे। कर्ण को यह नहीं पता था कि पांडव उसके असली भाई हैं। वह कौरवों के युवराज, दुर्योधन के अच्छे दोस्त बन गए थे।
कर्ण एक महान योद्धा थे, उनकी ताकत देखकर हर कोई डरता था। देवताओं के राजा, भगवान इन्द्र को डर था कि कर्ण कौरवों को कुरुक्षेत्र की लड़ाई में जीत दिला सकते हैं। कर्ण की उदारता और नेकदिली को जानते हुए भगवान इन्द्र ने पांडवों के पक्ष में कुछ करने की योजना बनाई।
महाभारत की लड़ाई से पहले, एक सुबह जब कर्ण अपनी रोज़ की पूजा कर रहे थे और सूर्य देवता को जल अर्पण कर रहे थे, भगवान इन्द्र उनके सामने आए। वह एक साधारण ब्राह्मण के रूप में भेष बदलकर, एक उद्देश्य से आए थे।
कर्ण ने उनका एक विनम्र मुस्कान के साथ अभिवादन किया और पूछा, "हे ब्राह्मण! आपके दर्शन पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं आपकी सेवा किस प्रकार कर सकता हूँ?"
ब्राह्मण ने धीरे और सधे हुए स्वर में कहा, "मैंने आपकी दानवीरता की अनेक कहानियाँ सुनी हैं। मैं आपके कीमती कवच और कुंडल माँगने आया हूँ।"
एक पल के लिए, कर्ण चौंक गए क्योंकि ब्राह्मण ने उनसे उनका सुरक्षा कवच माँगा लिया, जो एक बड़ी और कठिन युद्ध में उनकी हार का कारण बन सकता था। उन्होंने पहचान लिया कि वह इन्द्र देव हैं, पर दान देना वह अपना धर्म (कर्तव्य) मानते थे।
"ब्राह्मण देवता," कर्ण ने मुस्कान के साथ उत्तर दिया, "ये कवच और कुंडल मेरे शरीर का हिस्सा हैं, आप यह मान सकते हैं कि इन्हें देने से मैं युद्ध में सुरक्षा रहित हो जाऊँगा। लेकिन मेरी शक्ति का कारण मेरा कवच नहीं, बल्कि मेरा साहस और समर्पण है। इन गुणों और ताकत के साथ, मैं किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हूँ। इसलिए, मैं आपके निवेदन का सम्मान करता हूँ और आपकी इच्छा पूरी करता हूँ।"
फिर कर्ण ने एक छुरी निकाली और जन्म से अपने शरीर से जुड़े हुए कवच और कुंडल को काटकर निकाल लिया और ब्राह्मण को अपने कवच और कुंडल दे दिए। उनका अडिग संकल्प देखकर इन्द्र देव बहुत प्रभावित हुए।
इन्द्र देव ने कहा, "तुम्हारी दानशीलता अनुपम है, बेटा। तुम सबसे बड़े दानी सिद्ध हुए हो और आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हें 'दानवीर कर्ण' के नाम से जानेंगी, जिसका मतलब है 'कर्ण, महान दाता', क्योंकि तुमने कभी भी किसी को 'याचक' को 'ना' नहीं कहा।"
सीख: कर्ण का दूसरों की मदद करने का संकल्प, दानशीलता की शक्ति का सूचक है, जो प्रेम और सहानुभूति को बढ़ावा देता है। इसलिए, हमें दयालु बनाना चाहिए और जरूरतमंद लोगों की हर संभव मदद करनी चाहिए।
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स्त्रोत : द्रोंण पर्व
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः |
रिपुष्वपि दयावांश्च तस्मात्कर्णो वृषा स्मृतः ||
brahmanyah satyavadi cha tapasvi niyatavratah
ripushvapi dayavaanshcha tasmaat karno vrishaa smritah
अर्थ
जो भगवान के प्रति समर्पित हो, सत्यवादी हो, तपस्वी हो, अनुशासित मन वाला हो, और अपने शत्रुओं के प्रति भी दयालु हो, उसे "वृष" (महान व्यक्ति) कहा जाता है। यह श्लोक भक्ति, सत्य, अनुशासन और करुणा जैसे गुणों पर जोर देता है, जो एक ज्ञानी व्यक्ति के लक्षण माने जाते हैं।
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Story type: Motivational
Age: 7+years; Class: 3+